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जिस दिन सर्वहारा को अपनी ताकत का एहसास हो जाएगा उस दिन वे दुनिया को बदलकर रख देंगे……इंसानियत और लोकतंत्र के एक सशक्त शायर की पुण्य तिथि पर कहते हैं ….लोकतंत्र की मजबूती का एहसास कराते हुए बगावत और इंसानियत … पढ़िए आलेख … 

 

 

*फैज़ अहमद फैज़ पुण्यतिथि 20 नवंबर पर विशेष*
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*”सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे” इंसानियत और लोकतंत्र के एक सशक्त शायर फैज़ अहमद फैज़ “*
———————-गणेश कछवाहा रायगढ़ ——-

शायरी में उर्दू दुनिया के सबसे बड़े नामों में फैज अहमद फैज शामिल हैं। फैज अहमद फैज मुहब्बत और इश्क की शिद्दत से याद दिलाते थे, तो लोकतंत्र की मजबूती का एहसास कराते हुए बगावत और इंसानियत के लिए बेख़ौफ़ कलम चलाते थे।फैज के बारे में जितना लिखा जाए कम है।फैज़ की शायरी आम आवाम के लिए है और उनकी उम्मीदों और सपनों को आवाज देने वाली है।फ़ैज कहते थे कि- “जिस दिन सर्वहारा को अपनी ताकत का एहसास हो जाएगा उस दिन वे दुनिया को बदलकर रख देंगे।”फैज़ सिर्फ शायरी में ही क्रांति की बात करने वाले शायर नहीं थे. वे इंसानियत व रूमानियत के शायर थे, उतने ही लोकतंत्र के पक्षधर भी थे।उन्होंने पाकिस्तान की सरकार के खिलाफ खुलेआम बगावत भी की. इसका खामियाजा कभी उन्हें जेल जाकर तो कभी देश निकाला द्वारा सहना पड़ा. लेकिन क्रांति में और जनता में उनका भरोसा कभी भी कम नहीं हुआ. फैज़ क्रांति में अगाध विश्वास रखने वाले शायर हैं

बात 1985 की है। पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल जियाउल हक ने इस्लामीकरण की शुरुआत कर दी थी। पूरे पाकिस्तान में मार्शल लॉ लगा था। लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरे थे। आम लोगों की जिंदगी पर पाबंदियां थीं। महिलाएं साड़ी नहीं पहन सकती थीं। इस दमघोंटू माहौल में लाहौर का स्टेडियम एक शाम इंकलाब जिंदाबाद के नारों से गूंज उठा, लोकतंत्र और अपने अधिकारों के लिए जनता ने बगावत का ऐलान किया। और इस बगावत और इंकलाब को आवाज दी थी पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाल बानो ने। उन्होंने इस लाहौर स्टेडियम में कम से कम 50 हजार लोगों की मौजूदगी में जो नज्म सुनाई, उसे सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
यह नज्म थी:
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

यह सब लिखने वाले शायर और कोई नहीं फैज अहमद फैज थे। यह फैज का इंकलाबी रूप है। लेकिन इस इंकलाबी शायर का एक रुमानियत से भरपूर रंग भी है। बानगी देखिए:

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है, यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे, ग़मगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री है शब-ए-हिज़्रां
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत संवार चले

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूं की तलब
गिरह में लेके गरेबां का तार-तार चले

मुक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जंचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

आज की युवा पीढ़ी को शायद फैज अहमद फैज के बारे में न पता हो। आज की युवा पीढ़ी जिसको अभी ये भी पता न हो की लोकतंत्र ,संविधान और इंसानियत सद्भाव पर काले बादलों के संकटों से सामना का अहसास हो रहा हो या नहीं । लेकिन फैज की यह गज़लें, ये नज्में उन्हें ज़मीर और ज़िंदगी का हुनर सिखला सकती है। जिन्हें आज गाया जा सकता है, सुनाया जा सकता है, साझा किया जा सकता है।

फैज ऐसे शायर थे, जो लिखते थे, जेल में डाल दिए जाते थे। फिर लिखते थे, फिर जेल जाते थे। वे फिर जेल में ही लिखते थे। आज भी सत्ता तानाशाही विकसित करती है, फैज के दौर में भी ऐसा होता था। भारत में भी आजादी की आमद के वक्त लोगों को उसका चेहरा नजर ही नहीं आ रहा था, कहीं लोग एक-दूसरे की जान के दुश्मन थे, तो कहीं आवाजों का दम घोंटा जा रहा था। फैज ने इसे शिद्दत से महसूस किया, और उनकी कलम बोल उठी।

ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़मे-दिल

फैज वह शायर थे, जिसने सोती अंतरात्माओँ को , जमीरों को जगाने का काम किया था।फैज़ सिर्फ शायरी में ही क्रांति की बात करने वाले शायर नहीं थे. उन्होंने पाकिस्तान की सरकार के खिलाफ खुलेआम बगावत भी की. इसका खामियाजा कभी उन्हें जेल जाकर तो कभी देश निकाला द्वारा सहना पड़ा. लेकिन क्रांति में और जनता में उनका भरोसा कभी भी कम नहीं हुआ.

फैज़ का जन्म 13 फरवरी, 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट (अब पाकिस्तान) में हुआ था. फैज पहले सूफी संतों से प्रभावित थे. 1936 में वे सज्जाद जहीर और प्रेमचंद जैसे लेखकों के नेतृत्व में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हो गए. फैज़ इसके बाद एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी हो गए। फैज़ ने गवर्नमेंट कॉलेज और ओरिएंटल कॉलेज में अध्ययन किया , और ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवा करने के लिए चले गए । विभाजन के बाद, फैज़ उदार अंग्रेजी-दैनिक पाकिस्तान टाइम्स में संपादक के रूप में शामिल हुए।
फ़ैज़ को चार साल की जेल के बाद रिहा कर दिया गया और उन्होंने अपना समय मॉस्को और लंदन में बिताया, जो प्रगतिशील लेखक आंदोलन के एक उल्लेखनीय सदस्य बन गए । अयूब खान की सरकार के पतन और बांग्लादेश के अलग होने के बाद, उन्होंने जुल्फिकार अली भुट्टो के सहयोगी के रूप में काम किया , लेकिन जिया उल-हक के हाथों भुट्टो की फांसी के बाद खुद को बेरूत में निर्वासित कर दिया ।

फैज़ एक प्रसिद्ध मार्क्सवादी थे। लेकिन वे हमेशा कहते कम्यूनिष्ठ होना बहुत मुश्किल है ।इंसानियत को यथार्थ में जीने का नाम कम्यूनिष्ठ है।उन्हें साहित्य में नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकन के साथ-साथ 1962 में सोवियत संघ से लेनिन शांति पुरस्कार मिला। उनका काम पाकिस्तान में प्रभावशाली रहता है। 1990 में जब पाकिस्तान सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार निशान-ए-इम्तियाज से सम्मानित किया, तो उन्हें मरणोपरांत सम्मानित किया गया । उनका निधन 20 नवंबर 1984 (उम्र 73) को लाहौर , पंजाब , पाकिस्तान में हुआ।
गीत: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
बोल के लब आज़ाद हैं तेरे

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
नीम के पत्ते कडवे सही
पर खून तो तीतर करते हैं

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है …

तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है

बोल ये थोड़ा काम बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले

बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

बोल जो कुछ कहना है कह ले

फैज अहमद फैज इंसानियत और लोकतंत्र के एक सशक्त शायर थे। इंसानित उनकी रगों में था इसलिए मुहब्बत और इश्क की शिद्दत याद दिलाते थे । फैज के बारे में जितना लिखा जाए कम, लेकिन आज फैज हमारे बीच नहीं हैं, यही एक गम ।

गणेश कछवाहा
“काशीधाम”
रायगढ़ छत्तीसगढ़।
94255 72284
gp.kachhwaha@gmail.com

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