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पुनः कटघरे मे समाज………5 बेटियों के साथ सामूहिक आत्म हत्या …..और इस उम्र मे लडकियां काफी हद तक समझदार हो जाती हैं …..जरा सोचिए समाज है कटघरे में ….इन्होंने कहा आप भी मंथन जरूर करें ..

स्त्री योनी मे जन्म लेना मतलब लज्जा,अपमान, तिरस्कार, सहिष्णुता जैसे जिन्स आकार लेने के साथ साथ रक्त मे समाहित हो जाते हैं और जन्मजात रूप से रच बस जाते हैं क्या?बात महासमुंद मे एक माँ की अपनी पाँच बेटियों के साथ सामुहिक आत्महत्या करने की है।खबर पढ कर धक्का सा लगता है मन को।बडी बच्ची तकरीबन अठारह वर्ष की और शेष क्रमशः चौदह,बारह और दस और आठ की थीं।शराबी पिता से त्रस्त होकर यह घातक कदम उठाया सभी ने।
यह घटना लाजिमी तौर पर एक नहीं कई सवाल खडे करती है?अपने शराबी पिता को तो वे बचपन से देख कर पल बढ़ रही थी  लेकिन ऐसा अचानक क्या हुआ कि उन छःओं ने अनायास सामूहिक आत्महत्या कर ली।पन्द्रह से अठारह वर्ष की उम्र मे लडकियां काफी हद तक समझदार हो जाती हैं।गरीबी और अभाव मे अपने हमउम्र की तुलना मे जादा संघर्षशील भी होती है।निश्चित तौर पर ये लडकियां भी अपवाद नहीं रही होगीं।इस घटना के विलोम मे अगर शराबी पिता की बेटियों ने अपनी दुखी माँ के साथ अपने पिता की हत्या कर दी होती तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता था लेकिन उनके द्वारा उठाए गये इस कदम ने एकबारगी लोगों को झकझोर सा दिया।यकीन नहीं हो रहा कि एक माँ अपनी बेटियों के साथ ऐसा कर सकती है।
अनेक बातें हो सकती हैं।राजनैतिक पार्टियां इसे देख रही हैं और शराब को इसका मूल कारण  बता आरोप प्रत्यारोप भी कर रही हैं।दरअसल वर्तमान मे शराब समाज मे इस हद तक घुलमिल चुकी है कि उसे लेकर चिल्ल पों मचाना एक अन्तहीन और अर्थहीन प्रयास है।जिसमें हम कभी सफल हो नहीं सकते।शराबबंदी राज्य इसके उदाहरण है। इस घटना के मूल मे ही हमारा पितृसत्तात्मक समाज ही है।जहां पुरूषों को स्त्री के साथ अमानवीय सलूक करने का जैसे नैसर्गिक अधिकार ही मिल गया हो।यहां यह कहने मे मुझे कोई गुरेज नहीं कि जो समाज शराबियों के पक्ष मे खडा हो सकता है वही समाज स्त्रियों के मामले मे तटस्थ हो जाता है।इन बच्चियों और उनकी माँ ने महज अपने पिता या पति नहीं बल्कि साथ साथ एक ऐसे समाज को भी अपने आसपास देखा होगा जिनकी नजरों मे अपने प्रति तिरस्कार, अपमान,हवस और अन्य कई चीजें शामिल होगी जो शराबी पिता से जादा मरणांतक रही होगी।ऐसा नहीं कि उन्होंने संघर्ष की कोशिशें न की हो और उनकी कोशिशों को समाज का सहयोग न मिला हो।ऐसे मे शराबी पिता को झेलना बडी बात न थी लेकिन ऐसे निष्ठुर समाज मे रहना उनके आत्मसम्मान पर मृत्यु से भी जादा प्रभावकारी रहा होगा।इसलिए जीते जी मरते रहने की बजाय उनके सामने मृत्यु का कोई दूसरा विकल्प न रहा होगा और अगर रहा भी होगा तो उसके लिए जो कीमत चुकानी पडती वह उनकी हैसियत और आत्मसम्मान के दायरे से बाहर होगा।यह परिस्थितियां यही ईंगित करती है कि इस घटनाक्रम के लिए एक शराबी पिता की तुलना मे हमारा सभ्य और सुशिक्षित समाज जादा बडा गुनहगार है।शराबबंदी तो होने से रही स्त्री को समाज मे सुरक्षित और सम्मानजनक स्थान मिले इसकी ईमानदार कोशिश तो की ही जा सकती है।यहां कोशिश से आशय सिर्फ सरकारी कोशिश नहीं उससे कहीं जादा सामाजिक कोशिश होनी चाहिए।
आशा त्रिपाठी

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