
चुनावी दंगल : एक ऐसा विधान सभा खरसिया जिसने देखे हैं कई दंगल ….. आदिवासी बाहुल्य परंतु भौतिक विकास से दूर …. क्या आज भी है वही खरसिया …. क्या कार्यकर्ता क्या फरियादी …….और ओपी की भूमिका
रायगढ़ ।
जिले का सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहने वाले विधान सभा क्षेत्रों में खरसिया विधान सभा का लिया जाता है। रायगढ़ जिले का यह विधान सभा कई दिग्गजों की रण भूमि की गवाह रहा है। किंतु कर्मभूमि सिर्फ और सिर्फ स्व नंदकुमार पटेल की रही है । अब इस विरासत को उमेश पटेल आगे बढ़ा रहे हैं। पिता और भाई की शहादत को चीर अक्षुण्य बनाए रखने के लिए अनचाहा फील्ड राजनीत को स्वीकार करते हुए विरासत को संभाला और आगे बढ़ा रहे हैं। चूंकि यह एक राजनीतिक रणभूमि है और इसकी चर्चा चुनावी समर में ही होती है।
खरसिया की बात चले और स्व नंद कुमार पटेल का जिक्र न हो, बेमानी होगा। खरसिया विधान सभा जब नंदकुमार पटेल का था तब तक पूरे खरसिया वासी और कार्यकर्ता स्वयं को किसी एमएलए मिनिस्टर से कम नहीं समझता था और पूरे दंभ के साथ अपने आप को नंदकुमार पटेल का आदमी बताता था और उसका उतना ही फिर सम्मान भी रखा जाता था। वह इसलिए था कि स्व नंदकुमार पटेल ने अपनी जन्म भूमि को कर्मभूमि के तौर पर स्वीकार किया था और उनके जीते जी उन्होंने इस बात को चरितार्थ किया था। आज उमेश पटेल भी कांग्रेस के एक बड़े लीडर माने जाते है । जिले के दूसरा सबसे चर्चित विधान सभा खरसिया की एक ऐसा कांग्रेसी गढ़ है क्योंकि अब तक किसी भी भाजपाई नेता ने इसे अपनी कर्मभूमि बनाने की कोशिश नहीं की। उमेश पटेल जिन्हे खरसिया विधान सभा विरासत में मिली और सरकार में मंत्री के पद पर हैं। लेकिन स्व नंदकुमार पटेल की विरासत को समेटने में नाकाम नजर आ रहे हैं जो चर्चा का सबसे ज्यादा विषय है। खरसिया विधान सभा में लेकिन वो बात अब कहां। फिर भी अभी भी खरसिया कांग्रेस किए एक अभेद गढ़ के रूप से स्थापित है। उमेश पटेल आज भले ही कांग्रेस के एक बड़े लीडर के तौर पर माने जाते हैं खरसिया उनके लिए अभेद गढ़ है पर खरसिया की गलियों में नंदकुमार पटेल के समय में जैसा नाम गुंजा करता था, क्या आज खरसिया की गलियों में उमेश पटेल के नाम की वो गूंज है ?
पिछली चुनाव में भाजपा के द्वारा खरसिया विधान सभा के रहने वाले एक आईएएस अफसर को मैदान में उतारा और चुनावी रण में आते ही लालफीताशी का जलवा दिखाना शुरू किया और खूब जोर आजमाइश भी चला एक बार के लिए उमेश पटेल के मानस पटल पर पसीना बहा दिया था भले ही परिणाम विपरीत आया हो। वह शख्स ओपी चौधरी जो चुनावी दंगल में स्वयं को खरसिया का माटी पुत्र बता बता कर थक नहीं रहा था और चुनावी हार के बाद खरसिया से हमेशा के लिए मुंह मोड़ लिया।
ओपी चौधरी के बारे में यह आम तौर पर कहा जाता है कि उनके दिलों दिमाग में अभी भी अफसरशाही हावी है। उनके बारे में कहा जाता है की चुनाव के बाद जिस तरह से अपनी जन्म स्थली को भुला दिए और बड़ी पारी खेलने की मंशा से खुद को अपने क्षेत्र से खुद को दूर कर दिया। भविष्य में खरसिया के लिए विकल्प बनने में रुचि नहीं दिखाया अन्यथा यही ओपी चौधरी उमेश पटेल के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनते और आज नहीं तो कल उमेश पटेल के विकल्प के तौर पर खरसिया वासी उन्हें देखते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और न ही खरसिया वासियों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब हुए।
जो कभी खरसिया के गली गली में घूम घूम कर कभी क्रिकेट तो कभी गिल्ली डंडा खेल अपने आप को खरसिया का माटी पुत्र बताने वाला आज खरसिया को पूरी तरह से भुला रखा है। राजनीतिक हार के बाद अपने आप को राजनीतिक परिदृश्य में कोई अपना क्षेत्र बदलता है या अपनों से दूर होता है तो ऐसे व्यक्ति को भगौड़ा लापता या फरार की नजरों से उस क्षेत्र की जनता देखती है जो की यदा कदा सत्य होता है जो ओपी के ऊपर भी लागू हो सकती है। जैसा कि खरसिया अब पहले वाला खरसिया नही है अब अपने बदलते स्वरूप में भी है। ओपी चौधरी हार के बाद भी अपने कहे शब्दो को याद रख अगर आज पूरे 4 सालों तक खरसिया वासियों के लिए जिया होता तो आज समीकरण बदली हुई नजर आती है। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि अब वो खरसिया न तो भाजपा के दिग्गज नेता स्व लखीराम अग्रवाल के दौर की रह गई और न ही शहीद नंदकुमार पटेल के दौर की रह गई है। ओपी चौधरी एक ऐसे नेता साबित हो सकते थे। चुनावी हार जीत अपनी जगह है लेकिन खरसिया वासियों के लिए एक कद्दावर नेता के तौर पर उभर सकते थे लेकिन चुनावी हार को उन्होंने अपनी जीवन की हार के तौर पर स्वीकार करते हुए कोई सुरक्षित सीट की जुगत में लग गए। कभी कोरबा से लोक सभा चुनाव लड़ने की खबर खूब चली, कभी उनका नाम चंद्रपुर विधान सभा से लिया जाने लगा। पर अब तक उनकी तलाश पूरी नहीं हो पाई है। खरसिया क्षेत्र में मतदाताओं में सर्वाधिक आदिवासी समाज के लोग हैं परंतु उन्हें भौतिक विकास से दूर रखके हमेशा झुनझुना थमाया जाता है। यदि ओपी इधर उधर भागे तो फिर से भाजपा को नए नेता की तलाश रहेगी।
खरसिया विधान सभा में भाजपा यदि अपनी बची हुई साख को बचाना चाहती है तो ओपी चौधरी को खरसिया विधान सभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाकर उतारना चाहिए। और ओपी चौधरी को अपनी जन्मभूमि की सेवा के लिए एक बार पुनः प्रण लेना चाहिए हार जीत अपनी जगह है, जगह तो खरसिया वासियों के दिलों में बनना होगा तभी खरसिया विधान सभा का मिथक टूट सकेगा अन्यथा नहीं। खरसिया विधान सभा में राज करने के लिए शहीद नंदकुमार पटेल की राजनीतिक रणनीति को आदर्श मानकर जन्म भूमि को कर्मभूमि के तौर अपनाना होगा।
ओपी चौधरी और उमेश पटेल दोनों की अपनी जन्मभूमि खरसिया है। उमेश पटेल ने पिता की विरासत को लेकर आगे बढ़े हैं लेकिन ओपी चौधरी को राजनीति विरासत में नहीं मिली है। ओपी चौधरी को खरसिया विधान सभा को भेदने के लिए पहले स्वयं अभेद बनना होगा और क्षेत्र की जनता के दिलों में जगह बनाना होगा। अन्यथा उन्हें अपने भविष्य के लिए कोई सुरक्षित सीट की तलाश जारी रखना चाहिए।