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बढ़ती महामारी पर महोत्सव जारी है…..मुफ्त सलाहकार बने चौथे स्तम्भ…

लेखक-रुद्र
यह जितना अजब लगता है कहना और उतना ही सहज लगता है सुनना। सन्दर्भ और प्रसंग ठीक उसी तरह से हैं जैसे हरि अनंत हरि कथा अनन्ता। आइए कुछ पहलू जान लें की महामारी बढ़ी क्यों? कुछ ने कहा ट्रम्प साहब का दल ले आया। कुछ ने कहा तबलीग के लोग ले आए। कुछ समय पर फ्लाइट न रोकने को दोष देते रहे तो कुछ ने मजदूरों के अनियंत्रित आवागमन को जिम्मेदार ठहराया। नतीजा आप देखेंगे और आने वाला समय देखेगा की इस शिकवे शिकायत,आरोप प्रत्यारोप के सुअवसर तलाशते कुछ सफेद कपड़े में लोग सक्रिय रहे। जिन्हें न तो भूखे होते लोग दिखे और न परेशान होते आम आदमी। खैर भारतीय राजनीति की दिनों दिन घटती वैमनस्यता अब अंतहीन ढलान पर है। इसके कई जवाब और अनगिनत सवाल हो सकते हैं। परन्तु देखने वाले के चश्मे का रंग क्या है,यह एक महत्वपूर्ण कारक हो सकता है। घटनाओं पर निरन्तर आती टिप्पणियों को अगर आप दिल पर लेने लगे तो हो सकता है कि कोविड 19, जिसे चाइनीज वायरस और कोरोना के उपनाम से भी जाना जाता है उससे पहले आप हृदयाघात से जान गंवा बैठें।
  अब महामारी के दूसरे पहलू नजर डाल लीजिए। भारत में हर चुनौती एक अवसर है। यह सीख सदैव से भारतीय रक्त में बहती रही है। पहले चरण में इस
महोत्सव में मास्क वितरण फिर राशन वितरण फिर भोजन आदि का उत्सवों की भांति वितरण चला। तस्वीरें बांटने के लिए स्वप्रचार का माध्यम आदरणीय जुकरबर्ग ने दे ही रखा है। यह आंच इतनी तेज हुई की जो खुद्दार था वह कदाचित कई दिन असहज डरा हुआ भूखा ही सो गया होगा। दूसरे चरण के आते तक सफेद कपड़ों वालों के जनहितकारी उपलब्धियों को गिनने फिर गिनाने के साथ पलायन की भीषण समस्या ने देश के कई हिस्सों को जंगी मैदान सा बना दिया। रिपोर्टर पर जुनून सवार हुआ,मीडिया के सारे मंच मैदान में आ डटे। खैर बात फिर वही आई जिसने जिस रंग का चश्मा पहना था वही देखा। लाकडाउन के इस दौर में किसी निर्णयकर्ता या मुफ्त सलाहकार बने चौथे स्तम्भ ने यह नही सोचा कि बारिश आने को है। घर तो लौटना ही है। यह ऐसा समय है कि मजबूरियों से हार नही मानी जा सकती। याद करें बीते वर्षों में लम्बी ट्रेनों की भीड़। बहरहाल इसमे भी वही हुआ जो भारत की समृद्ध परम्परा है। उत्सव मनाया गया पलायन उत्सव, जिसे जैसे जमा उसने वैसे ही मनाया।
    हर स्तर पर इतनी शो बाजी हुई की गन्धर्व भी डरने लगे हैं की अब कोई प्रहसन नही जम सकेगा। इन सब के बीच विदेशी पैसो से ऊर्जित वक्ता देश की कमियों पर उलझे रहे,डिबेट होती रहीं। वन्ही देश हित में भी कुछ समाचार माध्यम इस कदर स्तर खो बैठे मानो चारण काल ही पुनः प्रस्तुत हो गया हो। इन सब के बीच एक निश्चित पगार पाने वाले निरन्तर जूझते रहे। कंही किसी से चूक हुई तो वह नजरअंदाज भी नही हुई। हर सफेद कपड़े वाले और उनके सिपहसालार कहते देखे गए कोई बात नहीं, वह पैसे किस बात के ले रहे। जो भी हो यह महोत्सव लापरवाही की भेंट चढ़ता नजर आ रहा है। हम नही सुधरेंगे और ना सुधरने देंगे के मानक वाक्य का अनुसरण करते हुए उत्सव मनेगा जरूर भले वह सफेद चादर पर लिपटा हुआ ही क्यों हो।
हाँ यदि कुछ परिवर्तन से परे है तो वह है भारत की जूझने की क्षमता,वह जूझ रहा है निरन्तर….क्रमशः
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