भारत में झूठे और भ्रामक विज्ञापन और उपभोक्ता …गंभीर मुद्दे पर डॉ. संजय कुमार यादव, सहायक प्रोफेसर, मार्केटिंग -कंज्यूमर मनोविज्ञान कहते हैं …पढ़े पूरी खबर
भारत भावुक लोगों का देश है जहां लोगों की भावनाओं से खेलना बहुत आसान है और इसी वजह से ज्यादातर संगठन भावनाओं से खेलने की कोशिश करते हैं और इसी के चलते भारत में झूठे और भ्रामक विज्ञापनों की समस्या एक गंभीर मुद्दा है, जो उपभोक्ताओं को गुमराह कर सकता है और उनका शोषण कर सकता है। इन विज्ञापनों का उद्देश्य उपभोक्ताओं को अवास्तविक या अतिरंजित दावे करके उत्पादों या सेवाओं को खरीदने के लिए प्रेरित करना है। यह न केवल उपभोक्ताओं के अधिकारों का उल्लंघन करता है, बल्कि समाज में अविश्वास और असंतोष भी पैदा करता है।
झूठे विज्ञापनों के सामान्य प्रकार
1. बैट-एंड-स्विच: इसमें उपभोक्ताओं को एक आकर्षक विज्ञापन के जरिए किसी उत्पाद की ओर आकर्षित किया जाता है, लेकिन बाद में उन्हें एक महंगा या भिन्न उत्पाद बेच दिया जाता है।
2. गलत प्रस्तुति: ऐसे उत्पाद जिनके लाभों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता, जैसे स्वास्थ्य पूरक, जो बिना प्रमाण के बीमारियों का इलाज करने का दावा करते हैं।
3. छिपी हुई फीस: कुछ कंपनियाँ उत्पादों या सेवाओं की वास्तविक कीमत को छुपा देती हैं, जिससे उपभोक्ता को वास्तविक लागत का पता नहीं चलता।
4. भ्रामक लेबल: कंपनियाँ उत्पादों पर “प्राकृतिक”, “जैविक” या “सर्वाधिक सुरक्षित” जैसे शब्दों का उपयोग करती हैं, भले ही इनका कोई वास्तविक आधार न हो।
5. शब्दों के चयनात्मक उपयोग के साथ आकर्षक पैकेजिंग: कंपनियाँ आकर्षक शब्दों जैसे “प्राकृतिक”, “जैविक”, “ग्रह के अनुकूल” का इस्तेमाल करके उपभोक्ताओं को भ्रमित करती हैं, जबकि उत्पाद वास्तविकता में इन मानकों पर खरे नहीं उतरते।
6. विरासत का लाभ: प्रतिष्ठित कंपनियाँ अपनी पुरानी विश्वसनीयता का फायदा उठाती हैं और नए उत्पादों पर बढ़ा-चढ़ा कर दावा करती हैं, जिससे उपभोक्ता उनके दावों पर भरोसा करने लगते हैं, भले ही वे सही न हों।
उपभोक्ता जागरूकता की कमी
भारत में अधिकांश उपभोक्ताओं को झूठे विज्ञापनों के खिलाफ अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होती है। यही कारण है कि कई लोग उन भ्रामक दावों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाते। इसके परिणामस्वरूप, ये विज्ञापन अधिक प्रभावी होते हैं, क्योंकि उपभोक्ता यह नहीं जानते कि वे किस तरह से शिकायत कर सकते हैं या क्या कानूनी उपाय उनके लिए उपलब्ध हैं।
उदाहरण के तौर पर, फेयरनेस क्रीम के मामले में बहुत से उपभोक्ता उन उत्पादों के अतिरंजित दावों से अनजान थे, जैसे कि त्वचा को एक ही उपयोग में सफेद बना देने का दावा। इस बारे में जागरूकता की कमी के कारण वे इसके खिलाफ कोई शिकायत नहीं कर पाए, और यह तब तक जारी रहा जब तक कि नियामक निकायों ने हस्तक्षेप नहीं किया।