
संडे स्पेशल…ये कहाँ आ पहुंचे हम…
आधुनिक बनने की होड़ में ये कहॉ आ पहॅुचे हैं हम? आज के इस दौर की सबसे बड़ी महामारी कोरोना ने हमें प्रत्यक्ष रूप से आईना दिखा दिया फिर भी नहीं जाग रहे हैं हम। इस महामारी ने एक प्रकार से यह स्पष्ट कर दिया है कि ये और कुछ भी नहीं प्रकृति की ओर से उसकी निरंतर होने वाली अवहेलना का ही परिणाम है और साथ ही अपने मूल को भूलकर अंधी आधुनिकता की अंधी दौड़ का ही नतीजा है। आपने कभी गौर किया कि गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को शुद्ध करने के लिए लाखों-करोड़ों की लागत की योजनाओं ने तो वांछित परिणाम नहीं दिया परन्तु इस महामारी के द्वारा कुछ ही दिनों की हमारी कुछ पाबंदियों ने इसे अपने आप शुद्ध कर दिया गया। ये तो एक साधारण सा उदाहरण है बहुत कुछ समझने के लिए।
घर में प्रवेष करने से पहले जूता-चप्पल आदि बाहर उतारना, हाथ-पैर धोकर घर में प्रवेष करना, भीड़भाड़ वाले क्षेत्र से आने के पश्चात तुरंत स्नान करना या अच्छी तरह हाथ पैर धोना, लोगों से हाथ जोड़कर अभिवादन करना… ये सब क्या आपको अपने पुराने दादा-दादी, नाना-नानी का जमाना याद नहीं दिलाता? जिसे हम न जाने कहॉ छोड़ आये। जिन्हें हम पुराने जमाने की दकियानूसी अंधविष्वास कह कर मुॅह बिचकाते थे, आज उन्हीं परंपरागत विधियों को अपनाने की सलाह आज के आधुनिक डॉक्टर्स और वैज्ञानिक भी दे रहे हैं और हम भी इसे अपनाकर बड़ा गौरवान्वित महसूस करते हुए बड़ी शान आधुनिकता की पहचान बता रहे हैं।
मैं छूआछूत की परंपरा की पैरवी कतई नहीं करता पर यदि आप गौर करें तो शायद ये परंपरा इसी प्रकार की रही होगी जिसे चंद लालची ज्ञानी (मुझे यह कहने में लेषमात्र भी गुरेज न होगा कि इन लालची और ज्ञानी लोगों में पद-प्रतिष्ठा के लिए ललायित धर्म के ठेकेदार और नेता ही होंगे) लोगों द्वारा उसके स्वरूप को इस कदर विकृत कर दिया गया की स्वच्छता की प्रवृत्ति वाली यह परंपरा अपना सौम्य स्वरूप खो दी होगी और आज हम अपने जीवन को बचाने की उम्मीद में उसी परंपरा का निर्वाह कर अपने को पुनः ज्ञानी और समझदार बताने की कोषिष कर रहे हैं।
आपने कभी सोचा है मात्र 20 सेकेण्ड तक हाथ को साबुन से धोने से जिस वायरस का संक्रमण को रोका जा सकता है उस वायरस को खत्म करने की दवा नही बन पा रही है और उसके रोकथाम के लिए जो उपाय बताए जा रहें हैं वे हमारे देष की प्राचीन आयुर्वेदिक पद्धतियों पर आधारित है कि गर्म और ताजा भोजन करें, गुनगुना पानी पिए, हल्दी के साथ गुनगुने दूध का प्रयोग करें, योग आदि करें इत्यादि….तो शान से क्यों नहीं घोषित किया जाता कि हमारी प्राचीन परंपराए और जीवन शैली श्रेष्ठतम है उसी के आधार पर जीवन-यापन करने का प्रावधान क्यों नहीं अपनाया जाता… कैसी शर्म है इस पद्धति को अपनाने में और क्यों हमारे डॉक्टर्स, वैज्ञानिक या सरकार इसे अधिकारिक रूप से स्वीकार करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं?… ये कैसी आधुनिकता की अंधी दौड़ है जिसके कारण हम अपनी परंपराओं को जो कि हमारी जड़ और मानव जीवन का आधार है उसको अपनाने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं?
मैं यह नहीं कहता कि हम आगे न बढे आधुनिक न बनें या दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर न चलें… बहुत जरूरी है यह सब करना और मैं यह भी नहीं कहता कि अपने प्रचीन परंपराओं या जीवनषैली का अंधानुकरण किया जाए… पर अपनी पवित्र और लगभग हर प्रकार से वैज्ञानिक कसौटियों पर खरी जीवन दायिनी परंपराओं या जीवन शैली को धता बताते हुए अंधी और आधारहीन आधुनिकता की दौड़ कहॉ तक उचित है? आपको ऐसा नहीं लगता है कि यह प्रकृति हमें इस प्रकार की भयानक महामारी के द्वारा इषारा कर कह रही है कि ‘‘हे मेरे मानस पुत्र-पुत्रियों मुझे मत भूलो, तुम ये कैसी दौड़ लगाने में व्यस्त हो कि अपने मूल को ही भूल रहे हो? ये तुम कहॉ जा रहे हो?’’
लेखक-उपकार शर्मा
मनेन्द्रगढ़