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कोरिया के कांग्रेसी कर्णधारों: अब बस भी करो!…महेंद्र दुबे का विशेष लेख…

महेंद्र दुबे ( लेखक व हाईकोर्ट अधिवक्ता )

कोरिया जिले के आजकल के कांग्रेसी कर्णधारों की हकीकत समझनी हो तो कोरिया जिले के निर्माण के समय को याद कीजिये!आगे पढ़ने से पहले केवल इतनी सी तथ्यात्मक जानकारी ध्यान में रखियेगा कि उस समय जिला पुनर्गठन आयोग ने बैकुंठपुर को जिला बनाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था मगर तात्कालिक राज्य सरकार (मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह) ने आयोग की अनुशंसा को दरकार कर सरगुजा के पूर्वी हिस्से को अलग करते हुए दिनांक 25 मई 1998 को “पूर्वी सरगुजा” (वर्तमान कोरिया) नाम के नए जिले की घोषणा की थी और बैकुंठपुर को “अस्थायी जिला मुख्यालय” घोषित किया था! अस्थायी ही सही मगर बैकुंठपुर को मुख्यालय बनाने की घोषणा होते ही मनेन्द्रगढ़ में आग लग गयी! वहां आमरण अनशन प्रारम्भ हो गया! जल्दी ही मनेन्द्रगढ़ को मुख्यालय घोषित कराने के व्यापक संघर्ष का शंखनाद हो गया था और कांग्रेसी विधायक गुलाब सिंह भी आमरण अनशन में बैठ गए थे! धीरे धीरे आंदोलन उग्र होता जा रहा था! उस वख्त का राजनैतिक समीकरण बहुत उलझा हुआ था,  स्व. रामचन्द्र सिंहदेव (कोरिया कुमार) कांग्रेस से बगावत करके सरगुजा राज परिवार को कुछ समय पहले ही शिकस्त दे चुके थे और कांग्रेस में उनकी वापसी को ज्यादा दिन नहीं बीते थे! उस दौर में सरगुजा राजपरिवार से उनकी अत्यधिक ठनी हुई थी और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह से सरगुजा राजपरिवार की नजदीकी कोई छिपी बात नहीं थी साथ ही कोरिया कुमार कांग्रेसी हलकों में “शुक्ला गुट” के माने जाते थे! कुल मिलाकर समझ लीजिए कि कोरिया कुमार तत्कालीन मध्यप्रदेश में अपनी एकाकी राजनैतिक हैसियत, कांग्रेस से बगावत के बाद वापसी और सरगुजा राज परिवार से अनबन के कारण अस्थायी तौर घोषित जिला बैकुंठपुर को स्थायी मुख्यालय घोषित करा सकने की स्थिति में नहीं दिख रहे थे! मगर अपनी कमजोर राजनैतिक हैसियत, मनेन्द्रगढ़ के उग्र आंदोलन, ग्यारह महीने के अनशन, तेरह दिन के कर्फ्यू और सैकड़ों की गिरफ्तारी के बावजूद जिले का नाम कोरिया करवाने और बैकुंठपुर को स्थायी जिला मुख्यालय घोषित कराने में वो कामयाब रहे!  मगर कैसे?

कुछ करना ही था उन्हें!
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बैकुंठपुर विधानसभा से बाहर की सियासत   उन्होंने कभी की ही नहीं थी और ऊपर लिखे कारण तो थे ही, इसलिए वो बेहतर जानते थे कि जिला मुख्यालय की लड़ाई में उनकी अपनी ही पार्टी के बड़े नेता उनकी कुछ नहीं सुनेंगे, मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह या बाद में दिग्विजय सिंह तो उनके प्रभाव पहुंच से बहुत दूर ही थे! इस विपरीत परिस्थिति में उन्हें विरोधी पार्टी की होने के बावजूद ग्वालियर की राजमाता विजय राजे सिंधिया से उम्मीद जगी थी और वो राजमाता सिंधिया के सामने याचक बन कर खड़े हो गए और कहा….. “मेरी जन्मभूमि को अन्याय से बचा लीजिए”! राजपरिवारों के आपसी रिश्ते कभी कभी राजनीति से ऊपर उठ जाते है और यहां भी राजमाता सिंधिया ने राजनीति को परे रखते हुए तब मुख्यमंत्री पर दबाव डाल कर न केवल बैकुंठपुर को स्थायी मुख्यालय बनवाया बल्कि जिले का नाम भी पूर्वी सरगुजा से बदल कर कोरिया करवा दिया!

और उनकी थाती ढोने वाले!
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दो दशक पुराना सन्दर्भ देने का आशय सिर्फ इतना है कि कोरिया कुमार की थाती ढो रहे छपास रोगी वर्तमान कांग्रेसियों के छल को समझा जाये! कोरिया कुमार अपने कोरिया को न्याय दिलाने की खातिर भाजपा नेता राजमाता सिंधिया से याचना करने तक से भी नहीं चूके थे मगर कथित तौर पर “कोरिया कुमार के सपने” का सपना दिखाने वाले जिले के कांग्रेसी कर्णधार मनमाने और एक तरफा जिला विभाजन के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन तो दूर सरकारी आयोजनों के प्रतीकात्मक बहिष्कार की अपनी खुद की घोषणा तक से दगाबाजी करने से भी बाज नहीं आये! इनके नेतृत्व ने जिला विभाजन के आंसू बहाते हुए मंच सांझा नहीं करने का स्टंट जरूर किया था मगर अवसर मिलते ही उनके सहित जिले का पूरा कांग्रेसी कुनबा सरकारी और पार्टी आयोजनों में पूरी निर्लज्जता से शिरकत करने लगा! यहीं नहीं पिछले 22 नवम्बर को नगर पालिका बैकुंठपुर और चर्चा को समर्पित वर्चुअल सरकारी आयोजन की फेसबुकिया पोस्ट डाल कर पैलेस के हरकारे, अन्यायी तरीके से कोरिया कुमार के ही निर्माण किये, पाले और पोसे कोरिया जिले का नक्शा काटने वाले मुख्यमंत्री को “यशस्वी” बता कर गर्वान्वित होते नजर आये!

आह! कोरिया कुमार के सपने!
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तीन साल होने के आये है! कोरिया कुमार की समाधि बन चुकी है! उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर बड़े बड़े कार्यक्रम होने लगे है!कांग्रेसियों के हर आयोजन में कोरिया कुमार के सपने हाजिर नाजिर रहते है, यहीं सपने पिछले विधानसभा चुनाव के पोस्टरों और बैनरों में मुस्कुराते रहे थे, इन्हीं सपनों की नमीं से भींगी आवाजें चुनावी सभाओं के लाउडस्पीकरों से निकलती थी, इन्हीं सपनों ने बहुतों की उंगलियां
को ईवीएम मशीन के किसी खास बदन को दबाने की तौफीक दी थी और इन्हीं सपनों ने जीत के जश्न में जिंदाबाद के नारों को ज्यादा बुलंद किया था! मगर उनके सपने “पूरे हुए?” ये सवाल इतनी जल्दी पूछना ज्यादती ही होगी मगर जिन्होंने इन सपनों को हमें दिखाया था और उन्हें पूरा करने की कसमें खायी थी उनकी दशा और दिशा पर गौर कर लीजिये, उन सपनों का आगे होने वाला हश्र आपकी आंखों के सामने तैरता नजर आयेगा! गढ़ी और ओढ़ी गयी सादगी के तिलिस्म को कभी न कभी तो टूटना ही होता है, ये अलग बात है कि इसे टूटता आप कब देख पाते है! हां अगर इशारों तक महदूद रहना हो तो पैलेस की विधायकी और जनता के बीच कोरिया कुमार की ढपली बजा बजा कर उनके सपने बेचते चेहरों की चमक का राज समझने की कोशिश कीजिये, इन्हीं सपनों की कृपा से पैलेस की देहरी के आगे जगह जगह उभर आये कुछ नए और कुछ पुराने नाले डबरे में संसाधनों को भरने वाले तंत्र का सिरा पकड़ने की जहमत उठाइये या फिर सरकारी एजेंसियों के निर्माण और सप्लाई में छद्म नाम से मलाई काटने वाले इन्हीं सपनों के सौदागरों की में से किसी एक की ही कुंडली खंगाल लीजिये! अगर ये भी नहीं कर पायेंगे तो इंतजार कीजिये, इस सादगी और सादापन के तिलस्म को तोड़ा ही जायेगा! कोरिया की मिट्टी में कोरिया कुमार की रूह बसी हुई है, उनके सपने इसके आसमान में छपे है, उनकी सांसे इसकी हवाओं में बसती है, उनका व्यक्तित्व इसकी पहचान गढ़ता है, यहां की मिट्टी कल भी देखती है और छल भी पहचानती है! जिसने इसके साथ छल किया है वो आज है मगर कल नहीं होगा!

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