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03 सितंबर अवतरण दिवस पर विशेष- एक औघड़ लीक से हटकर “मनुष्य ही मनुष्य की जाति है एवं हमारा धर्म मानवता का निर्वाह करना है”- प. पू. अघोरेश्वर भगवान राम

 

 

एक औघड़ लीक से हटकर ।
भारत में साधु, संतों, फकीरों,सूफियों व ऋषीमुनियों की सुदीर्घ व समृद्ध परम्परा है। सच्चे साधु विरले ही होते हैं।20 वीं शताब्दी में एक ऐसे ही सच्चे , पवित्र व युगप्रदर्शक संत शिरोमणि औघड़ संत अवधूत भगवान राम जी का अवतरण भाद्र शुक्ल सप्तमी रविवार संवत् 1994 को हुआ।आप अघोराचार्य दत्तात्रेय व बाबा कीनाराम के अवतार माने जाते हैं। आपने अघोर साधना व परम्परा को शमशान से निकालकर तथा पूर्ण नशाबंदी का संकल्प व आव्हान कर इसे समाज , राष्ट्र व विश्व कल्याण के लिए समाज व जनजन से जोड़ने का अद्भुत युगपरिवर्तन का कार्य किया। इसीलिए आपको” एक औघड़ लीक से हटकर “के विशेषण से विभूषित किया जाता है।

आपने अध्यात्म व धर्म के नाम पर समाज में व्याप्त प्रपंच,पाखंड, आडंबर, कुरीतियों,बुराइयों एवं भ्रांतियों के उन्मूलन और सुंदर , स्वस्थ, सुखी, समृद्ध समाज व राष्ट्र निर्माण के लिए पूरी पवित्रता के साथ सरल सुगम आध्यात्मिक चेतना क विकास का अभियान चलाया। आपने सर्वेश्वरी समूह की स्थापना कर सर्वप्रथम समाज से बहिष्कृत कुष्ठ रोगियों की सेवा का संकल्प लिया ।उन्हें आश्रम में रखकर स्वयं अपने हाथों से उनकी सेवा तथा उपचार करते आज भी यह सेवा कार्य जारी है।ग्रीनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में यह अद्भुत सेवा पुनीत कार्य दर्ज किया गया है।आप सिद्धियों के प्रदर्शन व चमत्कार के सख्त खिलाफ थे।

मनुष्य ही मनुष्य की जाति है , सिर्फ मनुष्य बनें –
आपने समाज को अध्यात्म का ‘अघोर ‘याने जो कठिन न हो बिल्कुल व्यवहारिक और सरल मार्ग बतलाया। आपने यह संदेश दिया कि -“ईश्वर ने कोई जाति,धर्म,समुदाय,भाषा आदि नहीं बनाया है। उसने हमें मनुष्य बना कर मनुष्यता के आचरण निमित्त इस लोक में भेजा है। यथार्थ में हमारी मूल जाति ‘मानव जाति’ है एवं हमारा धर्म “मानवता निर्वाह है” ।
हम इस जाति – पांती में बंटकर, अपनी इंसानियत से अपनी मानवता से बहुत दूर चले जाते हैं।उन भावनाओं को और विचारों को हमें त्याग ही नहीं करना है ;उसे पूरी तरह से जान और जी लगाकर उखाड़ फेंकना है।हम मनुष्य हैं। मनुष्य की कोई जाति नहीं है।मनुष्य की मनुष्य ही जाति है।

” सिर्फ मनुष्य बनें; एवं मन, वचन तथा कर्म से मनुष्यता का निर्वाह करें।हिन्दू, मुस्लिम,सीख, ईसाई, बौद्ध,जैन, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि बनना आसान है;किन्तु सच्चे अर्थ में मनुष्य बनना कठिन है।इस युग तथा काल की पुकार है- कि हम अपनी मौलिक जाति’ मनुष्य जाति ‘ को भली भांति पहचानें।; एवं सचेत हो कर अपने मौलिक धर्म ‘मानवता’ का निर्वाह करें।”

जाति व्यवस्था के उन्मूलन में सहायक बनों-
“हे साधु! आज की परिस्थतियों में मुदित मन से यह स्वीकार कर लेना बहुत बड़ी देन होगी कि- जाति,प्रांत,और विभिन्न भाषा भाषी क्षेत्रों के सभी लोग आदर, सम्मान और प्यार के पात्र हैं।नित्य के सभी भेद – भाव मिटाकर, वर्ण – व्यवस्था क प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक जाति, उपजाति एवं टाट – भात के लोगों को एक ही हुक्का के अन्तर्गत संगठित कर भाई – चारा की व्यवस्था देने में धर्म भी सक्षम हो सकता है। चाहे भले ही वे भिन्न – भिन्न उपास्यों की उपासना करते हों।वे एक ही पुष्पमाला में गूंथे हुए भिन्न – भिन्न वर्णों की तरह हमारे राष्ट्र एवं समाज के अंग – स्वरूप ही हैं।” हे साधु! तुम जाति एवं वर्ण के भेद को बिल्कुल नहीं मानो यही तुम्हारा धर्म है।”

शूद्रों की उपेक्षा – अवहेलना मत होने दो-
हे साधु वर्गीकरण के अनुसार तो चरणों को शूद्र ही समझा जाता है, किन्तु इस शूद्र का इतना बड़ा महत्व है , तुम्हारे शास्त्रों ने’ चरण सेवन ‘ का निर्देश दिया है।तुम जब तक यह समझते रहोगे कि – यह निर्देश किसी मंदिर की कुंठित मूर्तियों के संदर्भ में,या हाड़ मांस से निर्मित पिंड में बैठे हुए बुद्धिजीवियों के संदर्भ में दिया गया है।तब तक तुम अनभिज्ञ ही बने रहोगे।ऐसा समझना विघटन की प्रवृत्ति को जन्म देता है और विघटन ( विलगाव) की ओर खींच ले जाता है।जिस दिन इसे जान और समझ कर अपने को चरणों में प्रतिष्ठित करोगे प्राण को जो हर प्राणी में पाया जाता है, सच्चे अर्थों में जान सकोगे।ऐसा समझना राष्ट्र और समाज हित में है।’

शूद्र को ‘ शुभ ‘ आदर के भाव से देखो –
हे साधु! शूद्र का अर्थ है ‘शुभ आदर’ । उन्हें आज हम ‘ हरिजन ‘ ( भगवान का भक्त) कहते हैं। हमारे वेद पुराण , हमारी आर्य सभ्यता और संस्कृति ने भगवान के भक्तों (हरिजनों) के चरणों को दोनों भुजाओं(क्षत्रिय के द्योतक) को एक साथ बांधकर और मस्तक ( ब्राह्मण के द्योतक) को झुकाकर प्रणाम करने का निर्देश दिया है।जिस किसी के प्रति हम विशेष सम्मान प्रदर्शित करना चाहते हैं, उनके चरणों में करबद्ध होकर ,नतमस्तक हो दंडवत या प्रणाम निवेदित करते हैं। हमारे प्रामाणिक धर्म ग्रंथों और सांस्कृतिक विधानों ने इतनी प्रतिष्ठा और सम्मान देकर हरिजनों को प्रतिष्ठित किया है।

“अंधविश्वास को भक्ति का आधार न बनाएं –
पूज्य श्री आघोरेश्वर भगवान राम जी समझाते थे कि – ” भारतीय जन अपने गुरुओं और इष्टों के प्रति इतना अंधविश्वास रखते हैं कि अपना विचार खो देते हैं; और उनकी भी बातों को सही रूप में नहीं ग्रहण कर पाते हैं। किसी भी कार्य में आपको उक्ति की आवश्यकता होती है तभी वह सुचारू रूप से संपन्न होगा।यदि आपके पास युक्ति नहीं है सीधे सीधे भक्ति है तो यह लट्ठमार भी हो सकती है। ऐसी भक्ति आपको गुमराह भी कर सकती है। अंधविश्वास को भक्ति का आधार न बनाएं ।धर्म के नाम पर तथा गलत मान्यताओं के कारण,समाज में जो अनेक कुरीतियां फैली हैं,उनका उन्मूलन करो।जन समुदाय को प्रेरणा दो कि वे अंधविश्वास और आडंबर को छोड़कर सरल भाव से धार्मिक एवं सामाजिक कृत्यों का प्रतिपादन करें।

तीर्थाटन से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी –
“बंधुओं ! काशी जाकर गंगा में स्नान करके, या जटा बढ़ाकर या माथा मुढ़ाकर मोक्ष प्राप्ति की इच्छा एक मृगतृष्णा ही है। तीर्थों में घूम घूमकर देवी देवताओं का पूजन करना यह साबित करता है कि आप परमात्मा के असली स्वरूप को बिल्कुल भूल गए हैं। तीर्थाटन आदि उन्हीं लोगों को शोभा देते हैं, जिन लोगों ने मनुष्य का खून चूसा है। आपके लिए यह सुगम मार्ग नहीं है।आपके लिए तो सुगम मार्ग यही है कि यदि किसी गरीब का बच्चा पढ़ नहीं पा रहा है तो पढ़ने में उसकी मदद करें।यदि किसी गरीब की कन्या की शादी नहीं हो पा रही है तो उसकी शादी में सहायता करें।ईश्वर भी यदि आपको मिल जाए तो वह यह नहीं कहेगा कि आप गंगा के किनारे बैठकर माला जपें, वह भी यही कहेगा कि आप किसी दुखी की सहायता करें,इसी से उसकी सृष्टि का पालन होगा।ऐसा करने से आप पुण्य और आंनद प्राप्त करेंगे जो योगियों को सतत योग साधना से भी संभवतः नहीं प्राप्त होता।”

समाज व राष्ट्र की पूजा गढ़े हुए देवताओं की पूजा से भी महान है-
परम पूज्य आघोरेश्वर भगवान राम जी का मानना था कि समाज व राष्ट्र की सेवा ही सच्चे मायने में ईश्वर की पूजा से भी महान है।वे अपने संदेश और आशीर्वचनों में कहते – ” हे साधु! तुम समाज और राष्ट्र के ‘ संबल बनो ‘ भार नहीं । साधुता, समाज या राष्ट्र का भार नहीं,समाज तथा राष्ट्र का उत्तरदायित्व होता है।साधु समाज का पाठ प्रदर्शक होता है,समाज सेवक होता है, समाज का शुभ चिंतक होता है।
है ब्रह्मनिष्ठो!राष्ट्र और समाज की पूजा गढ़े हुए देवताओं की पूजा से भी महान है।अरे साधु! समाज की सेवा और उचित जनाकांक्षाओं की पूर्ति से बढ़कर कोई भी अन्य जाप तप, योग, ज्ञान और वैराग्य नहीं है। – (आघोरेश्वर की अनुकम्पा से उद्धृत)

परम पूज्यश्री अघोरेश्वर भगवान राम जी अवतरण भाद्र शुक्ल सप्तमी रविवार संवत् 1994 को हुआ।
जो समय ,काल और कर्म था उसे पूर्ण कर 29 नवम्बर 1992 को ब्रह्मलीन हो गए।रमता है सो कौन घट घट में विराजत है।
आज अवतरणदिवस के पुण्य अवसर पर
परमपूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु के श्री चरणों में सादर श्रद्धानत शत शत नमन करते हुए उनकी पवित्र वाणी सर्वजन कल्याणार्थ राष्ट्रहित में सादर समर्पित है।कोटि कोटि नमन।

गणेश कछवाहा
“काशी धाम”
रायगढ़ छत्तीसगढ़
संपर्क 9425572284
gp.kachhwaha@gmail.com

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