
विधि वक्ता बनाम राजस्व महकमा आखिर मूल वजह भ्रष्ट्राचार से जुड़ा तो नहीं ……..ये वही विधि वक्ताओं के अनुयायी हैं जिन्होंने देश की आजादी में अपनी भूमिका ….यह चिंतन का विषय पर करेगा कौन
रायगढ़। शमशाद अहमद
राजस्व कर्मचारियों व अधिवक्ताओं के बीच का मुद्दा अब सिर्फ स्थानीय स्तर का नहीं रह गया है। आख़िर इस झगड़े की शुरुवात राजस्व कार्यालय में कार्यालयीन गतिविधियों को लेकर तो नही चालू हुआ? जबकि मारपीट के एक दिन पहले जब एक अधिवक्ता से खुलेआम दुर्व्यवहार हुआ तो उसी दिन विधि वक्ताओं के संगठन को जागृत होकर प्रशासन के समक्ष अपना पक्ष रख देना था जिसके देरी होने के कारण दूसरे दिन आहूत आंदोलन आक्रोशित और विस्फोटक हो गया।
तहसील के सामने हुए विरोध स्वरूप आंदोलन की शुरुवात तो अच्छी हुई पर चन्द मिनटों के बाद वह मारपीट के घटनाक्रम में परिवर्तित हो गया।
सूत्रों की माने तो मारपीट की घटना को करीब से देखा इसमें उन्होंने यह भी बताया कि सरकारी कर्मचारी ने भी गंदी-गंदी गालियों का भरपूर उपयोग वह भी स्व-स्फूर्त किया । एक दूसरे के विरोध के साथ मारपीट और गंदी गालियों का सामंजस्य बन गया फिर यह भी देखा गया कि कर्मचारियों ने राजस्व कार्यालयों के दरवाजों में बलात ताले लगा दिए क्या यह नियम विरुद्ध नही था अब इन सभी को आज जिले की जनता अच्छा नही मान रही है। यह बेहद संवेदनशील और गंभीर मसला है।
दरअसल अगर यह मामला भ्रष्टाचार से जुड़ा है तो और मामले की पूरी जड़ यही है तो विधि वक्ताओं को इस पर अपनी लड़ाई लड़नी थी क्योंकि ये वही विधि वक्ताओं के अनुयायी हैं जो भारत की आजादी के आंदोलनों में उनकी एक बहुत बड़ी फौज रही है जिसमे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉ बाबा साहब अम्बेडकर जैसे सैकड़ो नामचीन अधिवक्ताओं ने अंग्रेजो का विरोध करके देश मे स्वतंत्रता आंदोलनों की मुख्य भूमिका निभाया उनके अनुयायियों से पंगा लेना मजाक नहीं है। इसके लिए विधि वक्ताओं को यह साबित करना होगा। और अगर राजस्व कार्यालय में भ्रष्टाचार नहीं है तो राजस्व कार्यालय को यह साबित करना होगा।
वसीम बरेलवी साहब की ये लाइन
*तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं*
*मैं गिरा तो मसला बनकर खड़ा हो जाऊँगा*
फिर भी अब विवाद प्रारम्भ हो गया है तो उसकी गंभीरता को समझने के बजाय आपसी समझौता करने के रास्तों से हटकर दमन की भूमिका निभाए जाने वाले लोग देर सबेर पहचाने तो जाएंगे पर अब प्रजातन्त्र है जिसके अनुयायी गूंगे बहरे हो जाए तो सत्ता और विपक्ष की भूमिका भी नहीं दिख पाती है।
जिस ढंग से अधिवक्ताओं को सीखचों के पीछे डाला जा रहा है ऐसी परिस्थितियों में प्रशासन व सत्तासीन लोग यह मान लें कि कहीं जन प्रतिनिधियों पर लाल फीताशाही हावी तो नही हो रही है।
पर यह भी नोट कर लें कि कालांतर में रायगढ़ जिला की कोख ने जल-जले और आंदोलनकर्मियों की फौज को जन्म दिया है।
*’मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र*
*रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा’*
रायगढ़ जिले के आंदोलनों की नसबन्दी के अभी कोई डॉक्टर पैदा नहीं हो पाए हैं। इस आंदोलन से विरोध और विद्रोह दोनों पनप रहा है इसका जिम्मेदार कौन होगा? जब एक तरफ विधि वक्ता है और एक तरफ ….इसके लिये काम बंद कर देना इसका खामियाजा तो आम जनता भुगतेगी और इसे जनता भी बड़े गंभीरता से सब कुछ देख रही है।
चंद लाइन इस पर
समर शेष है,
*जनगंगा को खुल कर लहराने दो*
*शिखरों को डूबने और* *मुकुटों को बह जाने दो*
*पथरीली ऊँची जमीन है।*
*तो उसको तोडेंगे*
*समतल पीटे बिना समर*
*की भूमि नहीं छोड़ेंगे*