
सुखी रोटी सहेज कर रखी है माँ ……उड़ता चला गया आसमान में पता चला डोर तो कोई और थामे रखा है …. इन दो जनवादी कविता को पढ़कर आपको भी लगेगा …..इन्होंने मौजूदा दौर की ..
*गणेश कछवाहा की कलम से –*
*, दो जनवादी रचनाएं –*
(*एक*)
सूखी रोटी सहज कर रखी है मां
आज कोई भूखे पेट नहीं सोएगा।।
फेंको मत बरक्कत है बासी रोटी
कई लोग बहुत दिनों से भूखे हैं।।
सूखी रोटी बिखरी पड़ी है रेल पटरी पर
जीवन तलाशते जिंदगी ने मंजिल पा ली है।
सारी मशक्कत है केवल दो रोटी के लिए ।
सत्ता और पूंजी की हवस ने हैवान बना दिया ।।
तुम्हें फिक्र है सियासत न चली जाए
लोग परेशान हैं कफन दफन कैसे किया जाए।
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*(दो)*
उड़ाया गया मुझे
अनंत ऊंचाइयों में
और मैं
लहराने लगा,
झूमने लगा
ठीक पतंग की तरह।
मैं
इठलाने लगा,
उड़ता गया
और उड़ता गया
ऊंचाइयों में।
पृथ्वी के
सभी तत्व
छोटे — छोटे
लगने लगे।
मैं
आकाश को
छूने की चाहत में
और ऊंची उड़ान
भरने की
कोशिश करने लगा
तब
मुझे पता चला
कि
मेरी डोर
और किसी के हाथों में है।
वह जितना ढील देता
उतना ही उड़ता
वह जैसा चाहता
वैसा ही मैं नाचता
ठीक पतंग की तरह।।
अचानक
तेज झोंका आया।
डोर टूटा
और मैं
असहाय
लड़खड़ाते/लड़खड़ाते
गिरने लगा।
चढ़ने में जितना समय लगा था
मुंह के बल
गिरने में कहां लगता है।
और मैं
गंदे नाले,जर्जर पड़ी सड़को पर जा गिरा।
मेरे गिरते ही
बच्चों की टोली ने
मेरे चिथड़े/
चिथड़े कर दिए।
राहगीरों के पैरों से
कुचला जाने लगा।
और
अंततः कूड़े की ढेर में
डाल दिया गया
ठीक पतंग की तरह।।
*गणेश कछवाहा*
रायगढ़ छत्तीसगढ़।
9425572284
gp.kachhwaha@gmail.com
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