पैर नही होने के बावजूद हौसला आसमान सा… मनेन्द्रगढ़ की फूलबाई बनीं औरों के लिए मिशाल..दिव्यांगता और गरीबी के बावजूद बच्चों को पढ़ाया…प्रशासन से अब अटल आवास की उम्मीद… मनेन्द्रगढ़ से ध्रुव द्विवेदी की स्पेशल रिपोर्ट..
मनेन्द्रगढ़ से ध्रुव द्विवेदी की स्पेशल रिपोर्ट
मंजिले उन्ही को मिलती हैं, जिनके हौसलों में जान होती है। पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है। यह लाइने मनेन्द्रगढ़ विकासखंड के ग्राम पंचायत लालपुर के स्कूल पारा में रहने वाली 55 वर्षीय फूलबाई के ऊपर पूरी तरह खरी साबित होती हैं। दरअसल बेटे को जन्म देने के बाद फूलबाई के दोनों पैरों में सूजन आ गई थी। हालात इतने बिगड़ गए की फूलबाई की जान बचाने के लिए डॉक्टर को उनके दोनों पैर काटने पड़े । फूलबाई ने अपने दोनों पैरों के काटे जाने का असहनीय दुख तो बर्दाश्त कर लिया, लेकिन इस दौरान उनके 20 दिन के नवजात बेटे की मौत हो गई। इतना सदमा झेलने के बाद भी फूलबाई ने हार नहीं मानी और दोनों पैरों के बिना भी उसने कभी किसी का सहारा नहीं लिया।
मनेंद्रगढ़ विकासखंड के ग्राम लालपुर में रहने वाले अवध राज सिंह खेती-बाड़ी करके अपनी गुजर-बसर करते हैं। परिवार में दिव्यांग फूलबाई के अलावा एक बेटी है जो कॉलेज में पढ़ रही है। फूलबाई जन्म से ही दिव्यांग नहीं थी । लगभग 27 वर्ष पूर्व फूलबाई को प्रसव पीड़ा होने पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में भर्ती कराया गया था। यहां फूलबाई ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया, लेकिन इस दौरान पूरे शरीर में सूजन आने की वजह से फूलबाई की तबीयत बिगड़ने लगी और सूजन के चलते उनके दोनों पैर सड़ने लगे। तब डॉक्टर ने फूलबाई की जान बचाने के लिए उसके दोनों पैरों को काटने का निर्णय लिया, तब कहीं जाकर फूलबाई की जान बच पाई। इधर समुचित देखरेख के अभाव में 20 दिन के नवजात बेटे की घर में दर्दनाक मौत में फूलबाई को तोड़ कर रख दिया। इतने बड़े जख्मों को झेलने के बाद भी फुलबाई ने हौसला नहीं खोया और दोनों पैरों के बिना ही उसने अपनी जिंदगी को फिर एक नए तरीके जीने का फैसला लिया।
गरीबी के चलते उसकी तीन बेटियां तो नहीं पढ़ पाई, लेकिन फिर किसी तरह उसने अपनी दो छोटी बेटियों को पढ़ाने का निर्णय लिया ।आज उसी का परिणाम है कि एक बेटी कॉलेज में पढ़ाई कर रही है। पहले फूल बाई के पति अवध राज सिंह बैलगाड़ी चलाकर अपने परिवार की गुजर-बसर करते थे, लेकिन बदलते समय के साथ बैलगाड़ी का चलन बंद हो गया,
तब उन्होंने खेती-बाड़ी कर अपने परिवार की गुजर-बसर शुरू की। लेकिन खेती-बाड़ी कम होने के कारण परिवार का भरण पोषण ठीक से ना होता देख फूलबाई ने अपने घर में ही एक छोटी सी किराने की दुकान शुरू की और जिसमें उसने छोटी-छोटी चीजें रखकर अपने बच्चों को बड़े सपने दिखाना शुरू किए।
फूलबाई अपने जरूरत के सभी काम जहां अपने हाथों से करती है वहीं उसे अपने घर व आसपास साफ-सफाई पसंद है। फूलबाई कहती है कि अगर हम अपने घर को साफ नहीं रख पाएंगे तो दूसरों को स्वच्छता की प्रेरणा कैसे दे सकते हैं। यही वजह है कि हर तीज त्यौहार के मौके पर दोनों पैरों से दिव्यांग फूलबाई बिना किसी सहारे के मिट्टी लाती हैं और उसे फावड़े से मिलाकर अपने घर के बाहर इस प्रकार लीपती है कि देखने वाले देखते रह जाएं। घर आंगन की साफ-सफाई ,घर के जरूरी कामों के साथ वह अपना अधिकांश समय दुकान में देती है। उसका मानना है कि कोई भी व्यक्ति अगर अपने मन से दिव्यांग ना हो तो दिव्यांगता कभी उसके आड़े नहीं आती।
इतना होने के बाद भी फूल बाई को आज तक एक बात का मलाल है कि लंबे समय से वह इंदिरा आवास की मांग कर रही है। लेकिन उसका आवेदन क्यों नहीं संबंधित अधिकारी की टेबल तक नहीं पहुंच पाता उसकी समझ से परे है। फूलबाई ने बताया कि वह कई बार इसे लेकर अधिकारियों के चक्कर लगा चुकी है। लेकिन आज तक उस का इंदिरा आवास स्वीकृत नहीं हुआ। प्रधानमंत्री आवास के लिए भी उसने आवेदन दिया, लेकिन वह भी स्वीकृत नहीं हुआ। इसे लेकर थोड़ी परेशान जरूर है। लेकिन उसका मानना है कि आज नहीं तो कल उसके आवेदन पर जरूर ध्यान दिया जाएगा और उसे रहने के लिए अपना इंदिरा या अटल आवास मिल सकेगा। इसके अलावा उसे जो मासिक पेंशन मिलती है वह भी नियमित रूप से नहीं मिल पाती। पेंशन चार-पांच महीने में एक बार मिलती है जिससे फूलबाई को आर्थिक रूप से परेशान होना पड़ता है। लेकिन इतनी परेशानियों के बीच में रहते हुए भी फूलबाई के चेहरे में उसके नाम की तरह हमेशा मुस्कुराहट उन लोगों के लिए सबक है जो छोटी-छोटी परेशानियों में भी अपने को मायूस कर बैठ जाते हैं। ऐसे लोगों के लिए फूलबाई एक मिसाल है। जनापेक्षा है कि जिले के जनप्रतिनिधि फूलबाई की छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई बड़ा कदम उठाएं जिससे फूलबाई को होने वाली परेशानियों से निजात मिल सके।