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तेलंगाना से पैदल निकला 21 साल का युवक…300 किमी चलने के बाद सांसो ने छोड़ा देह का साथ…ये भी कोई उम्र है भला मरने की…

कोई चादर समझ के खींच न ले फिर से ख़लील
मैं कफ़न ओढ़ के फुटपाथ पे सो जाता हूँ …

यह 21 साल का लड़का तेलंगाना से ओडिशा अपने घर के लिए पैदल निकला आगे 300 km चलने के बाद भद्राचलम में इसकी तबियत बिगड़ी और साँसों ने देह का साथ छोड़ दिया !

21 साल… यह मरने की उम्र है? क्या आपको अब भी लगता है कोई ईश्वर है जो बचा लेगा ऐसे तमाम लोगों को? यह जो कुछ इस देश मे अभी हो रहा है, वह कोरोना का कम और इंसानी कुप्रबंधन का नतीजा है। इस तरह की तस्वीरें लगाने का मन नही करता पर रातों नींद नही आती और लगता है, समय को दर्ज होना चाहिए। यह भी विचार आया कि आत्मा जैसी कुछ नही होती वरना वह अपना बदला अपने शोषकों से जरूर लेती। एक बड़ी बात यह भी समझ आई कि जो लोग इतनी तकलीफ सहकर लौट रहे हैं, उनमे अधिकार चेतना भी नही है। इतिहास में देखने पर भी यही दिखता है, अधिकार चेतना का घोर अभाव। ‘कोउ नृप होय, हमें का हानि’ इसी भाव को परिभाषित करता है। आपने इन मजदूरों को कहीं अपने मालिक को कोसते नही देखा होगा और न ही व्यवस्था को। इसे नियति मानकर घर पहुँचाने के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं और कष्ट सह रहे हैं सिर्फ इस उम्मीद में गांव जाकर नून रोटी खा लेंगे या अपनी माटी में मर जायेंगे।

‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ का सिद्धांत मनुष्य ने बहुस्तरीय कर लिया है वरना प्राकृतिक सिद्धांत से तो अभी जिनके पास खाना है, पैसा है, उन्हें भी खाने को न मिले तब यही सड़कों पर चल रहे मजूर आखिर तक जीवित रहेंगे। इधर दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में व्यवस्था ऐसी बनाई गई है कि समाज अमीर गरीब और जाति धर्म मे बंटा रहे। पर रुझान शुरू हो गए हैं, रोज कमानेवालों से बात अब महीना कमानेवालों तक आ रही है। यहां अवसाद, लोन का बोझ, नौकरियों के जाने की हताशा उभरने लगी है।

एक दिन कोविड 19 की दवा आ जायेगी। दुनिया इस वायरस के साथ जीना भी सीख लेगी। पर याद रखी जायेगी यह सारी तस्वीरें इसलिए कि संत्रास का यह काला अध्याय क्या सिर्फ कोरोना के इस वायरस ने ही लिखा है?

पीयूष कुमार की फेसबुक वॉल से

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